Sunday, December 14, 2008

जन-प्रतिनिधि अपना कर्तव्य निभाएं

संविधान में जनता का जो कर्तव्य था वह उसने बखूबी निभाया. जनता ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया और अपने प्रतिनिधि चुन लिए. अब इन जन-प्रतिनिधियों को अपना कर्तव्य निभाना है. 

पहला कर्तव्य है - जन-प्रतिनिधि यह न भूलें:
- कि वह जनता के प्रतिनिधि हैं, शासक नहीं,
- कि भारत एक प्रजातंत्र है, राजतन्त्र नहीं.

दूसरा कर्तव्य है - जन-प्रतिनिधि ऐसा कोई कार्य न करें:
- जिससे जनता को शर्मिंदा होना पड़े,
- संविधान का अपमान हो,
- कानून और व्यवस्था बिगड़े.

तीसरा कर्तव्य है - जन-प्रतिनिधियों के व्यवहार में: 
- ईमानदारी, शुचिता, नेतिकता हो,
- गुटबंदी, जाति-धर्म-भाषा पर अलगाव न हो.

मुख्य कर्तव्य - जन-प्रतिनिधि स्वयं को जनता का ट्रस्टी मान कर कार्य करें. पाँच वर्ष बाद जब वह राज्य/देश का प्रबंध दूसरे जन-प्रतिनिधियों को सौंपें तब राज्य/देश में सर्वांगीण विकास नजर आए. 

Wednesday, December 10, 2008

कौन जीता - नेता या जनता?

भारत में जो लोकतंत्र है, उसमें नेता सब से ऊंचा होता है. हारने वाले नेता कहते हैं, "जनता जनार्दन का जनादेश सिरोधार्य". जीते हुए नेता अगर बहुत मेहरबान हुए तो जनता का धन्यवाद कर देते हैं और चल पड़ते हैं अपना और अपनों का घर भरने के लिए. चुनाव के बाद जो भी कहा जाता है वह सब शब्दों का हेर फेर होता है, इस में वास्तविकता न के बराबर होती है. 

जनता चुनाव में वोट डालती है, पर नेताओं के लिए, अपने लिए नहीं. जनता के वोट से नेता जीतते हैं, जनता नहीं. नेता का नाम और लेबल अलग-अलग हो सकता है, पर जीतता नेता ही है, या यह नेता या वह नेता, जनता कभी नहीं जीतती. चुनाव एक माध्यम है नेता जी को अपनी सत्ता प्राप्त करने का. उस के लिए वह जनता का प्रयोग करते हैं, कि भाई आओ और वोट डालो, बताओ किस से शासित होना पसंद करोगे आने वाले पॉँच साल के लिए? जनता जाती है और पाँच साल के लिए अपने शासक के नाम का बटन दबा आती है. जो जीत जाता है, जम कर शासन करता है. जनता की ऐसी-तैसी कर देता है. जनता मन ही मन सोचती रहती है कि देख लेंगे अगले चुनाव में. फ़िर चुनाव होता है. फ़िर जनता बटन दबा आती है किसी नेता के नाम पर, और पाँच साल के लिए फ़िर गुलाम हो जाती है. शासक का नाम और लेबल हो सकता है बदल जाए, पर शासक और गुलाम का रिश्ता बैसा ही रहता है. 

इस बार भी नेता ही जीते हैं. जनता फ़िर हारी है. मजे की बात यह है कि हारने के लिए जनता सुबह उठ कर हमेशा की तरह मतदान केन्द्र पर गई और अपनी हार मशीन में बटन दबा कर बंद कर आई. अब गुलामी का नया पाँच साल का दौर फ़िर शुरू. 

Thursday, December 4, 2008

राजनीति प्रजा की सेवा के नाम पर धोखा है

आज भारत में राजनीति सेवा का साधन न रहकर एक व्यवसाय बन गयी है और व्यवसाय व्यक्ति अपने फायदे के लिये करता है समाजसेवा के लिये नहीं. आज राजनीतिबाज जो कर रहे हैं वह एक धोखा है जो प्रजातंत्र के नाम पर वह जनता को दे रहे हैं. 

यह शब्द 'राजनीति' ही सारे फसाद की जड़ है. भारत में प्रजातंत्र है, अब प्रजातंत्र में भला राजनीति का क्या काम? शब्दों में बहुत शक्ति होती है. शब्द अक्षर से बनते हैं और अक्षर ब्रह्म का एक रूप है. हम जो शब्द प्रयोग करते हैं वह हमारे सोच का प्रतिनिधित्व करता है और बाद में हमारे कर्मों को प्रभावित करता है. यह कहना कि 'मैं राजनीति में प्रजा की सेवा के लिए आया हूँ', एक धोखा है. राजनीति का अर्थ है वह नीतियाँ बनाना और पालन करना जो राज करने के लिए जरूरी हैं. प्रजा की सेवा के लिए जो नीतियाँ बनेंगी उनका एकमात्र उद्देश्य प्रजा की सेवा करना होगा. 

हमारे देश में प्रजा की सेवा के नाम पर राजतन्त्र चलाया जा रहा है. जनता जिन्हें अपना प्रतिनिधि चुनती है वह चुने जाने के बाद स्वयं को राजनेता घोषित कर देते हैं, और प्रजा पर शासन करने लगते हैं. कुछ राजनीतिबाजों ने तो परिवार का राज चला रखा है. अगर वह जन-प्रतिनिधि होते तो आज भारत का रूप दूसरा ही होता. कोई जन सेवा के लिए भ्रष्टाचार नहीं करेगा, कोई सेवा करने के लिए हिंसा करके चुनाव नहीं जीतेगा. सेवा एक से ज्यादा व्यक्ति एक साथ कर सकते हैं. राज एक ही व्यक्ति या एक दल या एक कोलिशन करता है. यह लोग अपनी जरूरतों के लिए इकठ्ठा होते हैं,जनता के दुखों से द्रवित होकर नहीं. हाँ यह बात अवश्य है कि ऐसा वह, जनता के लिए कर रहे हैं, कह कर करते हैं. यही वह धोखा है जो आज इस देश में राजनीतिबाज जनता को दे रहे हैं. 

'राजनीति' की जगह 'प्रजानीति' शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए. 'राजनेता' की जगह 'जन-प्रतिनिधि' का प्रयोग होना चाहिए. यह जन-प्रतिनिधि एक ट्रस्टी के रूप में काम करें, जैसे भरत ने राम का प्रतिनिधि बन कर अयोध्या का प्रबंध किया था. आज भारत को 'राम राज्य' नहीं 'भरत का प्रबंधन' चाहिए. आज देश को नेता नहीं ट्रस्टी चाहिए. आज जनता को शासक नहीं सेवक चाहिए. दशरथ के राज्य में अन्याय हुआ था, श्रवण कुमार की हत्या, राम को वनवास. राम के राज्य में भी अन्याय हुआ था, सीता को वनवास. पर भरत के प्रबंध में कोई अन्याय नहीं हुआ. यह इसलिए हुआ कि भरत राजा नहीं सेवक थे, राम के प्रतिनिधि थे. वह राम द्वारा मनोनीत अयोध्या के ट्रस्टी थे.